विवाहित-जीवन में सुख और शान्ति को नष्ट करने में अपनी मनमानी चाल या स्वेच्छाचार भी एक बड़ा कारण है | एक युवा जोड़े का विवाह हुआ | दूल्हा और दुल्हन, दोनों धनी परिवारों से सम्बंधित थे | ब्रिटिश राज के समय शिक्षित धनिक परिवार अपने योग्य लड़कों की उच्च शिक्षा के लिए उन्हें परदेस में भेज देते थे | उपर्युक्त दूल्हा के मां-बाप भी अपने उन्नतशील पुत्र के सम्बन्ध में ऐसा ही विचार रखते थे | जब लड़के के लिए यात्रा का प्रबन्ध किया गया तो उलझन खड़ी हो गई | दुल्हन भी विदेश जाने का हठ करने लगी | पति को उसे ऐसे निश्चय से रोकने के लिए बड़ी मुश्किल पेश आने लगी | पत्नी ने अपने युवा पति से स्पष्ट कह दिया कि उसे उसके व्यवहार पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि वह अपनी देख-भाल स्वयं करने योग्य वयस्क हो चुकी है | दोनों के बीच निम्न बातचीत हुई :–
“प्रिये, तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि तुम मेरी पत्नी हो | तुम्हारा जीवन मेरी देख-रेख पर छोड़ा गया है | तुम जानती हो कि मैं तुमसे अधिक शिक्षित हूँ | अत: तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम मेरा अनुकरण करो – इसी में गृहस्थी की शान्ति और संगठन बना रह सकता है |”
“प्रिय, तुम भी यह मत भूलो कि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ, दासी नहीं | हिन्दू-संस्कारों के अनुसार मैं तुम्हारे सुख-दुःख की साथिन हूँ | यदि तुम विदेश जाकर अपने भविष्य को उन्नत करना चाहते हो, तो मुझे भी अपनी उन्नति का उतना ही अधिकार है | तुम अधिक से अधिक यह कह सकते हो कि तुम्हारे पास दोनों के निर्वाह के लिए साधनों का अभाव है | मेरे माता-पिता की कृपा से मुझे अच्छी विरासत मिली हुई है | मैं अपना खर्च आप बरदाश्त कर सकती हूँ |”
“आर्थिक-स्वतन्त्रता अच्छी चीज़ है | अच्छा है कि तुम विदेश में उच्च शिक्षा पाने के लिए मेरी आश्रित नहीं | परन्तु कल दूसरे देश में तुम यह भी दावा करने लगोगी कि तुम अपने धन पर निर्वाह करने के कारण कहीं भी रहने और स्वेच्छा से कैसा भी आचरण करने की अधिकारिणी हो | पति और पत्नी की स्वतन्त्रता न तो उनके विवाहित जीवन के लिए ही उत्तम है, न उनके बच्चों के लिए यह श्रेष्ठ है |”
“तुमने जीवन के इस पहलू पर चर्चा चला कर अच्छा ही किया | हाँ, निश्चय ही मैं अपनी इच्छा और पसंद के अनुसार जीवन बिताना चाहती हूँ | विदेश में भी मैं तुम्हारे साथ एक ही शर्त पर रह सकती हूँ कि तुम मेरे आचरण में हस्ताक्षेप नहीं करोगे | तुम अपनी ख़ुशी से कहीं भी जाओ और मैं अपनी मर्ज़ी से कहीं भी जाऊं |”
“यदि पत्नी पति की कोई भी बात न माने और पूर्णत: स्वेच्छाचार से रहे तो संगठित गृहस्थ-जीवन की सम्भावना ही क्योंकर रहेगी ? मान लो, मैं भी ऐसा ही करने लगूं, तुम्हारी और बच्चों के जन्म पर उनकी भी उपेक्षा करूं – तो यह लापरवाही और उपेक्षा तुम्हें कैसी लगेगी ? मान लो तुम मेरे लिए घर बनाती हो और मैं अपनी इच्छा और सनक के अनुसार कभी भी समय-कुसमय घर लौटूं, तुम्हें भोजन की मेज़ पर अनावश्यक प्रतीक्षा करनी पड़े, और इस प्रकार सुख और मेल सब नष्ट होने लगें, तो ?”
“मूल्य कुछ भी चुकाना पड़े, परन्तु मैं स्वेच्छाचार का त्याग नहीं कर सकती | मैंने पहले ही अपने पिता और भाइयों को कह दिया है कि वे आरम्भ से ही मेरे अध्ययन, खान-पान और रहने का तुमसे जुदा प्रबन्ध करें |”
“सो, प्रिये, तुम मेरे साथ गृहस्थ जीवन में रहना ही नहीं चाहतीं | तुम मेरे लिए घर भी बसाना नहीं चाहतीं | यह भी नहीं चाहतीं कि मैं तुम्हारे आचरण पर कोई रोकथाम रखूँ | मुझे प्रसन्नता है कि तुमने आज अपने दिल की बात मुझसे कह दी | मैं ऐसे स्वतन्त्र आचरणवाद और अभ्यास को जिसमे एक-दूसरे के लिए कोई ख्याल नहीं, मानने को तैयार नहीं |”
दोनों विदेश गए | मुझे बताया गया कि वहां वे एक-दूसरे की रोकथाम के बिना पूर्ण स्वतंत्रता का जीवन व्यतीत करते रहे | जव वे वापिस लौटे तो लगभग जुदा हो चुके थे | भारतीय समाज में इस प्रकार सामाजिक बन्धनों और शासनों से मुक्त स्वतंत्र व्यवहार को सहन नहीं किया जाता | कहते हैं वे सचमुच बाद में जुदा हो गए | एक-दूसरे से पूर्णत: स्वतंत्र होने के कारण पत्नी ने पर-पुरुष के साथ स्वतंत्र प्रेम का महा-नाटक आरम्भ कर दिया | शायद वह यह कहा करती थी, “यदि मेरा पति दूसरा विवाह कर सकता है, तो मैं किसी अन्य पुरुष के साथ स्वतंत्र वासनापूर्वक जीवन क्यों नहीं बिता सकती ?”
उसके आचरण ने सबको ही रोष से भर दिया | कुछ लोग साहसपूर्वक उसके मुँह पर भी यह कह दिया करते थे कि उसके द्वारा नैतिक-सिद्धांत और सामाजिक बन्धनों का उल्लन्घन उसकी बदनामी का कारण बन रहा है | वे यह भी कह देते थे कि कोई भला व्यक्ति उसे अपने घर आने या अपनी औरतों और लड़कियों को उससे मिलने-जुलने की छूट देने के लिए कभी तैयार न होगा | कुछ तो इतने साहसी थे कि कह देते, “तुम्हारी ज़िन्दगी समाज में विवाहित-जीवन के लिए प्लेग के सामान है |”
परन्तु उस स्वेच्छाचारिणी स्त्री ने यह कभी अनुभव ही नहीं किया कि वह समाज का एक अंग है और समाज निर्माण और नीति के अधीन है | उसने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि एक शिक्षित पति और प्रेमिल-पिता के सरंक्षण में परिवार अधिक सुरक्षित रह सकता है | वह यह कभी न समझ पाई कि विवाह-बन्धन के अन्तर्गत पत्नी को पति पर अनेक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं | वह नहीं समझी कि विवाह पत्नी को सुशोभित स्थिति प्रदान करता है | पत्नी के रूप में क़ानून और समाज उसके साथ थे, वह यह भी महसूस नहीं कर सकी | उसने यह भी कभी महसूस नहीं किया कि बड़े-से-बड़े शक्तिशाली व्यक्ति की रखैल बनने पर भी उसे स्त्रीत्व या पत्नीत्व का गौरव प्राप्त नहीं हो सकता, बल्कि इस प्रकार उसने पत्नी के विशेषाधिकारों को, जो उसे पति द्वारा प्राप्त होते हैं, खोया ही है |
मुझे बताया गया कि उसने यह सब अनुभव तो किया, परन्तु बहुत देर बाद | जिनके साथ वह रखैल बनकर रही थी, उन्होंने ही उसे बरबाद कर दिया | धीरे-धीरे उसने अपने को बिलकुल अकेला पाया—मित्रहीन और परित्यक्त | पति के घर तथा उसकी समादृत दूसरी पत्नी को देखकर वह आहें भरती थी | उसे अपने पति से संतान भी थी | उन्होंने उसकी ओर देखना भी स्वीकार नहीं किया | अत: पत्नी और माता दोनों रूपों में उसे बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा और वह त्याज्त पत्नी और त्याज्य माता बनी रहकर घृणा ही झेलती रही | अब उसे समझ आया कि पत्नी और माता दोनों स्थितियों में स्त्री को हठ करने से कुछ हाथ नहीं आता, उल्टा वह बहुत कुछ गंवा बैठती है | अपने तथा अपने बच्चों के हित के लिए स्त्री का यह मुख्य कर्त्तव्य है कि वह हर प्रकार के अनमेल से दूर रहे और पति का मन जीत कर बच्चों के लिए सुख और एकता के वातावरण का निर्माण करे | जब तक घर में संतान न हो, तब तक भले ही यह परस्पर के झगड़े और अनमेल कुछ सीमा तक मुआफ किये जा सकते हैं, क्योंकि इनका प्रभाव मुख्य रूप से माता-पिता पर ही पड़ता है| परन्तु जब परिवार में बच्चे आ जाते हैं, तो स्थिति गंभीर हो जाती है |
एक सभा में, जहाँ मैं भी उपस्थित था, लगभग तेरह वर्ष की एक लड़की उठ खड़ी हुई | आंसू बहाते हुए उसने बताया कि उसके बचपन में जब उसने अपने माता-पिता को एक-साथ होने पर जब कभी हँसते न पाया तो उसका नन्हा दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया | उसने आगे बताया कि उसका पिता स्वेच्छाचार के नाते क्योंकर उसकी माता का निरादर ही न करता था, बल्कि कभी-कभी दूसरा विवाह कर लेने की धमकी भी देता था | वह बोली कि वह देवात्मा की आभारी है, जिन्होंने उसके माता-पिता के घर में शान्ति और मेल पैदा कर दिया तथा वह भी इतने प्रभावशाली ढंग से कि उसके पिता उसकी माता के प्रति किये हुए अन्याय पर पछतावा भी करने लगे हैं| पिता भी उस सभा में मौजूद था | उसने भी खड़े होकर सिसकियाँ लेते हुए बताया कि वह स्वेच्छाचार में इतना भूला हुआ था कि पत्नी की शुभ इच्छाओं को प्राय: ठुकरा दिया करता था |
स्वेच्छाचार उन ख़तरनाक इच्छाओं में से एक है, जो लोगों के हृदय को निर्मम बनाती है और न केवल अन्याय और बुरा व्यवहार भी करवाती है, बल्कि घरों को तबाह और बरबाद भी कर देती है |
मैंने एक ऐसे सफल व्यक्ति की कहानी पढ़ी थी, जो अपनी भली पत्नी और मासूम बच्चों पर अत्याचार किया करता था | वह अपने बच्चों को क्रूरता से पीटता था | उसके बड़े बेटों में से एक तो उसका परिवार छोड़ कर भाग गया और उसका फिर कभी पता न चला | उसकी पत्नी बेटे के भाग जाने के कारण अति-पीड़ित जीवन बिता रही थी | परन्तु बाप कठोर था, उसने बच्चों को मारना बंद नहीं किया | उसकी पत्नी निराश हो गई | भेड़ की तरह मिस्कीन (निरीह) होते हुए भी, एक दिन वह धमकी देते हुए उस पर शेरनी की तरह ग़रज़ उठी, “यदि तुम मेरे बच्चों को फिर कभी मारोगे, तो मैं यहाँ से चली जाऊंगी और फिर कभी तुम्हारी सूरत भी न देखूंगी |” पति को पत्नी के चरित्र का यह नया पहलू देखकर बड़ी हैरानी हुई | परन्तु उसे पत्नी की पति-भक्ति का इतना विश्वास था कि उसने धमकी की ओर कोई धयान न दिया | एक बार फिर उसने उस लड़के को पीटा, जो अभी मां-बाप के साथ रहता था | उसी शाम जब वह आफ़िस से लौटा तो यह देख कर स्तब्ध रह गया कि उसकी भली पत्नी अपने बेटे को लेकर वहां से जा चुकी थी |
पत्नी के इस प्रकार घर से चली जाने से उसे बड़ा सदमा पहुंचा, परन्तु अब क्या हो सकता था ? उसने उसे बहुत खोजा, परन्तु कोई लाभ न हुआ | वर्षों बीत गए, भाग्य ने उस दु:खी हृदय पति को रौंद डाला | उसका व्यापार नष्ट हो गया | उसके जीवन से सब खुशियाँ छूट गईं | एक दिन उसे अपने बेटे का पत्र मिला, जिसमे उसने मां की गंभीर दशा की सूचना दी थी और उसकी ओर से प्रार्थना की थी कि वह मृत्यु-शैय्या पर उसे दर्शन देकर संतोषपूर्वक मरने में सहायक हो| वह आया और उससे (पत्नी से) मिला | उसकी देवी समान पत्नी ने उसके आ जाने पर धन्यवाद दिया और अपने पुत्र को पिता का ध्यान रखने की प्रार्थना की | स्वेच्छाचारी ‘पति’ पत्नी की मृत्यु के बाद भी बहुत समय तक जीता रहा और अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति दुर्व्यवहार पर पछताता रहा | परन्तु जहाँ तक पत्नी का सम्बन्ध था, वह पति के वास्तविक और शुभकर परिवर्तन का फल न भोग सकी, क्योंकि अब वह जीवित न थी | उसका बेटा जो मां को बहुत चाहता था, बहुत त्याग के साथ अपने पिता की देखभाल करता रहा | अपने कृतज्ञ व्यवहार से उसने अपने पिता के आखिर के दिन शांतिपूर्वक बिताने में उसकी बड़ी सहायता की |
स्वेच्छाचार का यह नाटक स्वयं चीख-चीख कर कह रहा है कि स्वेच्छाचारी सदैव भाग्यहीन होता है | संसार के प्रत्येक दम्पत्ति को निश्चित रूप से यह समझ लेना चाहिए कि ‘विवाहित-सम्बन्ध’ पारस्परिक आदर, पारस्परिक सम्मान, कृतज्ञता और प्रेम से ही सुदृढ़ बनता है |