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Scientific temper & Integrity
21वीं सदी में भी मनुष्य की आत्मा अर्थात इंसानी जीवनी शक्ति के सम्बन्ध में इतना ज्यादा घोर अँधेरा छाया हुआ है जो न सिर्फ पूर्ण रूप से असत्य, मिथ्या और भ्रान्तिमूलक है परन्तु वह सर्वथा विनाशकारी भी है l
देवात्मा के बिना मनुष्य की आत्मा अर्थात जीवनी शक्ति को न तो देखा जा सकता था और न ही उसके पूर्ण विकास के नियम पूरे हो सकते हैं। सारा खेल देवात्मा के अंदर लगातार विकसित हो रहे सत्य और शुभ के अनुराग थे l
केवल सत्य बोलना और सत्य की खोज करना सत्य का पूर्ण अनुराग नहीं, जो सत्य का पूर्ण अनुराग देवात्मा के अन्दर विकसित हुआ है l
परन्तु न तो उनके किसी शिष्य ने और न ही किसी विचारक ने देवात्मा को समझा या पहचाना, जैसा देवात्मा चाहते थे। इसके विपरीत देवात्मा की शिक्षाओं को धर्म एवं Philosophy की श्रेणी में रखकर तथा प्रचारकों द्वारा देवात्मा की लिपिबद्ध शब्दावली को तोड़ मरोड़ कर पेश करके मिथ्या के नियमों को पूरा किया है; वह एक भयंकर भूल हो सकती है l आज कितने ही भ्रांतिमूलक शब्द जिनके अलग-अलग अर्थ निकल सकते हैं; जैसे भगवन, भगवान, श्रीमान, ओम, आत्मा, मोक्ष, धर्म, कृपा, माया, भक्ति, मिथ्या, अंध विश्वास, वैराग्य, आत्म ज्ञान और आत्म बोध आदि l समय रहते हुए हमें इनके सही अर्थों को समझ लेना होगा और मिथ्या फैलने के नियमों को रोकना होगा l मिथ्या कथन, मिथ्या प्रतिज्ञा, मिथ्या ग्रहण, मिथ्या समर्थन आदि ने समाज में जो शोषण किया है लफ्ज़ उसको ब्यान नहीं कर सकते l इसलिए, हमारी एक बहुत बड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण (scientific temper) और उच्च स्तर की integrity को विकसित करें और यह सुनिश्चित करने में अपनी तरफ से गहन भूमिका निभाएँ कि देवात्मा की शिक्षाओं का प्रसार उसी तरह हो जैसा होना चाहिए।
https://youtu.be/aGRknu7gZbI?si=4_2enGHnJxic5kcp -
The evolution of the highest values
आज से 173 साल पहले, एक ऐसे देव बालक का अपने अद्वितीय वंशीय पूर्वज और उन के वंश में प्रगट होकर सत्य और शुभ के पूर्ण अनुरागों की देव शक्तियाँ बीज रूप में पाकर, आविर्भूत होकर भारत की पाक धरा को सदा के लिए “The Land of the Highest values” बना दिया l नेचर के विकास क्रम में एक ऐसा देव बालक पैदा हो गया कि जिसने मनुष्य जगत में जन्म लेकर उसी प्रकार विशेषता लाभ की, जिस तरह पशु जगत के विकास में मनुष्य ने जन्म पाकर विशेषता लाभ की थी l देवात्मा का जन्म विषयक विशेषता होने से कितने ही नीच भाव जैसे ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, घमंड etc. न ही पैदा हो सकते थे और न ही हुए l सत्य और शुभ के अनुरागों की सात्विक शक्तियों के इलावा, असाधारण ज्ञान कोष, हृदय की निर्मलता और तत्वदर्शिता, असाधारण ग्रहण और त्याग शक्ति विषयक विशेषताओं के कारण, शिक्षा विषयक अद्वितीय योग्यता होने के कारण और निम्न कोषों पर उच्चतम आध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण अधिकार हो जाने से देव बालक पूर्ण सत्य और शुभ के अनुरागों में लगातार विकसित होकर सभी युगों के सबसे बड़े शिक्षक बन गए l अटल विश्वास और आत्म निर्भर विषयक विशेषता, देव धर्म संग्राम विषयक विशेषता, देव धर्म संस्थापक विषयक विशेषता, लक्ष्य विषयक विशेषता और महा त्याग विषयक विशेषताओं ने देवात्मा को “The Light of the Universe” बना दिया l रहे देवात्मा अज्ञात, अनादृत, घृणित, परित्यक्त आजीवन, लेकिन इस आध्यात्मिक देव सूर्य को कोई भी ना तो देख सका और ना ही पहचान पाया जिस ह्रदय में मनुष्य और उसके निचले जगतों के पूर्ण रक्षा और विकास का सामान विकसित हुआ l
यें हसरतें ही रही कि कोई आपने दिल का ग़मगुसार, आपकी बेकसी और तकलीफों के वक्त, हो कोई सच्चा हमदर्द l ये दास्ताँ-ए-दर्द देवजीवन की आज भी हैं l
https://youtu.be/HlNmugxuSuI?si=-H-nZ9sBWPqyZpbE -
देवात्मा को भगवान् शब्द की उपाधि क्यों ?
भगवान् शब्द भी भ्रमित करने वाले शब्दों में से एक है। विचारकों का ऐसा मानना है कि जब हम भगवान शब्द का प्रयोग संज्ञा के रूप में करते हैं तो हिंदी में इसका अर्थ लगभग हमेशा ईश्वर/परमेश्वर/God ही होता है। जबकि विशेषण के रूप में भगवान का हिंदी में मतलब ईश्वर /परमेश्वर/God नहीं होता है। इस रूप में यह देवताओं, विष्णु और उनके अवतारों (राम, कृष्ण), शिव, महावीर जैसे आदरणीय महापुरुषों, धर्मगुरुओं, गीता आदि के लिए एक उपाधि है। इसका स्त्री लिंग भगवती है।
कुछ विचारक ऐसा भी मानते है कि भगवान गुण वाचक शब्द है। जिसका अर्थ गुणवान होता है। यह "भग" धातु से बना है, भग के 6 अर्थ है:- ऐश्वर्य, धर्म, श्री, यश, ज्ञान और त्याग (बैराग्य) जिसमें ये 6 गुण है वह भगवान है।
वही पर कुछ ऐसा भी विचार रखते है कि संस्कृत भाषा में भगवान "भंज" धातु से बना है जिसका अर्थ हैं:- सेवायाम् । भ=भक्ति, ग= ज्ञान, वा=वास, न=नित्य, जिसे हमेशा ध्यान करने का मन करता है।
कुछ विचारक मानते है कि मुख्य रूप से भगवान का अर्थ- भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर (जो नेचर को दर्शाता है) इस लिए हम कह सकते है कि नेचर हमारे भगवान है जिससे हमे जीवन जीने का आधार मिलता है।
कुछ लोग मानते है कि भगवान उसको कहते है जिसने प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर का सम्पूर्ण अनुभव किया हो l
हिंदू धर्म में भी भगवान को God रूप का पर्यायवाची मानकर कोई साकार रूप में, कोई आकर रूप में, कोई निराकार रूप में मानते हैं l
जैन धर्म में भगवान अरिहंत (केवली) और सिद्ध (मुक्त आत्माएं) को कहा जाता है।
वही पर बुद्ध के शिष्य का मानना है कि जिस व्यक्ति ने स्वयं को राग, द्वेष और अज्ञान से मुक्त कर लिया है वह भगवान कहलाता है।बुद्ध निश्चित रूप से इन तीनों से मुक्त थे और इस प्रकार उन्हें भगवान कहना उचित है। धम्म भाषा पली में ‘भगवान’ शब्द का अर्थ ईश्वर नहीं बल्कि जिसने तृष्णाओं को भंग कर दिया हो वह भगवान् है l
भगवान गुण वाचक शब्द है। जिसका अर्थ गुणवान होता है।
Linguistic philosophers इन भ्रांति दायक धार्मिक शब्दावली से बहुत परेशान थे l
बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली Linguistic philosopher में से Willard Quine (Harvard university) मानते है कि कोई भी दो (समानार्थी) शब्द exactly पर्यायवाची नहीं हो सकते l अगर हम कोशिश भी करें तो हमें उस संस्कृति का विस्तार से अध्ययन करना होगा जहां से इस शब्द की उत्पत्ति हुई है।
जब देवात्मा को भगवान देवात्मा कहा जाता है तो क्या इसका संदर्भ देवत्व, (दिव्य) गुणों को धारण करने वाला, परम सुंदर, सर्वोत्तम, परम श्रेष्ट, सर्वोच्च जीवन की महिमा का प्रतीक है ? -
Dev Dharma is neither a religion nor a philosophy
यह जो सत्य शिव सुंदर का अद्भुत गीत गाया जा रहा है
यह जो जग के उपकार ही में पल पल बिताया जा रहा है
यह जो रूह का अंधेरा सिमट रहा है उजाला फैल रहा है
यह जो मिथ्या-पाप ग़ारत हो सत्य-शुभ राज आ रहा है
यह जो दुख सहकर भी रूह का पूर्ण मुदावा जान गया है
यह जो पूर्ण त्यागी हो मौत निकट कुल नेचर बचा रहा है
यह जो संबंधों में कड़वाहट जा रही है व मेल आ रहा है
यह जो पूर्ण सत्य खातिर देवजीवन दाव पर लगा रहा है
यह जो परम श्रेष्ट व सर्वोच्च जीवन निरंतर बढ़ रहा है
यह जो देवशक्तियों की दिव्य महक गुलशन गुलशन है
यह जो परम सुंदर जीवन की चमक आलम आलम है
बस यही देव धर्म है यही देव धर्म है यही देव धर्म है -
घमंड किस बात का
जब इंसान अपने वजूद के लिए इतना प्यार या इश्क़ बढ़ा लेता है और फिर इस प्रेम के कारण वह अपने शरीर, अपने शरीर के प्रत्येक अंग, अपने शरीर के बल, अपनी बुद्धि, अपनी समझ, अपनी भाषा, अपनी शिक्षा, अपने मत और अपने विश्वास आदि को न केवल सुन्दर और निर्दोष रूप में, किन्तु उन्हें किसी और की अपेक्षा झूठ मूठ भी बढ़ चढ़ कर देखता वा विश्वास करता है, और किसी गुण के विचार से किसी और को अपनी अपेक्षा झूठमूठ भी घटिया जानता वा विश्वास करता है, तब घमंड भाव के कारण वह भूल जाता हैं की इस अति महा विशाल नेचर में उसकी औकात क्या है l उसको यह भी याद नहीं रहता कि उसका वजूद दूसरों के ऊपर निर्भर करता है l हर एक पल वह दूसरों का मोहताज है l
घमंडी लोग केवल यही नहीं कि अपने ही विषय में किसी सत्य को मिथ्या और किसी मिथ्या को सत्य देखते हैं, किन्तु नेचर के विविध जगतों में जिन कई प्रकार के श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का विकास हुआ है, उनके सच्चे सौन्दर्य और उनकी सच्ची महिमा के देखने के भी वह योग्य नहीं रहते; अर्थात, वह अपने इस घमंड भाव के कारण इस प्रकार के सौन्दर्य के देखने की योग्यता को - यदि ऐसी कोई योग्यता उनमें पहले से वर्तमान हो - धीरे-धीरे खोकर अन्धे बन जाते हैं| और वह अन्धे होकर केवल यही नहीं, कि नेचर में मनुष्य जगत के विकास क्रम में जिन जिन आत्माओं में कई प्रकार के सुन्दर, सराहनीय, श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का प्रकाश हुआ है, उन्हें देखने के योग्य नहीं रहते, और इसीलिए उनकी सच्ची प्रशंसा वा स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु उन उच्च गुणों के सौन्दर्य वा उनकी महिमा के देखने के योग्य बनने से किसी मनुष्य के आत्मा में जिस सच्चे सात्विक श्रद्धा भाव की जागृति होती है, उसे भी वह अपने आत्मा में विकसित नहीं कर सकते|
इसके भिन्न घमंडी जन नाना विषयों में मिथ्या दृष्टा और मिथ्या विश्वासी होकर भी अपने आपको सदा ठीक ठाक विश्वास करते हैं, और जो जन किसी विषय में भी उनका सा कोई मत वा उनका सा कोई विश्वास न रखता हो, वह उसी को सदा भ्रांत वा भ्रष्ट वा विपथ-गामी (गुमराह) विश्वास करते वा समझते वा प्रकट करते हैं l -
नफरतों का जहर
घमंड और नीच घृणा से बढ़कर हमारा और दूसरों का कोई शत्रु नहीं है l वैसे तो नफरत हर मनुष्य व पशु के लिए घातक है परन्तु देवात्मा और उनके देवप्रभावों के कारण किसी अधिकारी इंसान के अंदर उच्च बोध विकसित हो चुके हो, उनको नीच घृणा करना बहुत ही महाविनाशकारी हैं l
जब कोई इंसान किसी सुख का अनुरागी बन जाता है, उस सुख को वह लाभ करना चाहता है, और इसीलिए उसके उस सुख की प्राप्ति में जब कोई मनुष्य वा पशु वा कोई और अस्तित्व किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न करता है, तब उसमें उसके प्रति इस नीच-घृणा-भाव की उत्पत्ति होती है l
किसी से अपने किसी वांछित सुख की तृप्ति के न पाने पर; और अपने वा किसी अन्य जन वा जनसमूह के साथ किसी नीच अनुराग के बंधन से बंधे होने पर मनुष्य का नीच घृणाकारी बन जाना लाज़मी है l
जब कोई मनुष्य इस दशा में पहुच जाता है, कि वह अपनी बड़ाई की तुलना में किसी विषय में भी किसी और जन की बड़ाई को (चाहे वह पूर्णत: सच्ची भी हो) सुनना वा देखना वा मानना पसंद नहीं करता, और उससे दुःखी होता है; तब वह उसके प्रति स्वभावत: नीच घृणा अनुभव करता है l
इसके अलावा अपने एक वा दूसरे प्रकार के मिथ्या संस्कारों वा मिथ्या विश्वासों का अनुरागी बन जाने पर इंसान का नीच घृणाकारी बन जाना लाज़मी है l
नीच घृणाकारी इंसान हमेशा चाहता है कि मुझ से कोई जन भी श्रेष्ट वा बढ़िया न समझा, न माना और न प्रकट किया जाये; और मुझ से बढ़कर किसी विषय में किसी और जन की प्रशंसा न हो; और उसे कोई सन्मान आदि न मिले l -
होश की जिंदगी
होश की जिंदगी ही गुलज़ार है, सार्थक है l होश की जिंदगी आपकी हरेक चिंता व क्रिया के बोध की जिंदगी का नाम है l मनुष्य धन, सम्पत्ति, प्रशंसा, मान, बड़ाई, स्वार्थ सुख अनुराग आदि के सुखों का अनुरागी बनकर उन सुखों की प्राप्ति के लिए विविध प्रकार की मिथ्याओं और विविध प्रकार के अन्याय-मूलक कर्मों का आश्रय लेता है; और अपने आत्मा की हानि के भिन्न नाना समयों में अपने शरीर की भी बहुत हानि करता है, इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l
धर्म वा मज़हब के नाम से भी जितनी शिक्षाएं और क्रियाएं प्रचलित की गई हैं, उन सबका उद्देश्य भी एक वा दूसरे प्रकार के सुख की प्राप्ति और दुःख से निवृत्ति या मुक्ति ही बतलाया गया है, परन्तु यह सब शिक्षाएं और क्रियाएं नेचर के आत्मिक जगत के शुभ और सत्य विषयक अटल नियमों के विरुद्ध होने के कारण जैसे पूर्णत: मिथ्या हैं, वैसे ही वह उनके विश्वासी प्रत्येक मनुष्य के लिए नाना प्रकार से महा हानिकारक वा पतनकारी भी हैं इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l
अधिकारी मनुष्यों को इस सुख दुःख के आधार पर स्थापित सब प्रकार की मिथ्या शिक्षा और सब प्रकार के मिथ्या धर्म मतों, मिथ्या साधनों, मिथ्या मूलक व्यवहारों और अनुष्ठानों और सब प्रकार की अशुभ चिन्ताओं और अशुभ कर्मों और उनके विकारों से मोक्ष देने और उन्हें नेचर के आत्मिक जगत के अटल नियमों और उसकी अटल घटनाओं पर स्थापित सत्य धर्म विषयक मतों और विश्वासों का ज्ञान देने, उनमें आत्मिक जीवन उत्पादक और वर्द्धक नाना श्रेष्ट और सात्विक भावों के उत्पन्न करने और इस प्रकार से मनुष्य जगत का नेचर के ही नियमानुसार जहां तक सम्भव हो, सर्वांग कल्याण साधन करने के लिए उसके करोड़ों वर्षों के विकास- क्रम में शुभ और सत्य के बोधी और शुभ और सत्य के पूर्ण अनुरागी सत्यदेव देवात्मा का आविर्भाव हुआ है; इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l -
Real friend
आखिर हमारा सच्चा हमदर्द और दोस्त कौन हैं ? क्या जो मुश्किल और विरोधी हालातों में हमारे साथ खड़े रहे ? या फिर सिर्फ वही इंसान हमारा दोस्त हो सकता है जो अपने आत्मा के भले की सच्ची आकांक्षा और अन्य अधिकारी आत्माओं की आत्मिक भलाई का भाव जिसके भीतर उत्पन्न हो गया हो ? जिस हद तक हमारे सात्विक भाव भी आत्म बोध और देव ज्योति के साथ तालमेल रखेंगे और उनके अनुकूल चलेंगे, केवल उसी हद तक व्यक्ति अपना और दूसरों का मित्र हो सकता है। -
विशुद्ध परोपकार का सूत्र
उच्च भाव शक्तियों द्वारा दूसरों की मदद करने से हम आत्मिक रूप से आगे बढ़ते हैं, विकसित होते हैं l वहीं दूसरी तरफ नीच भाव शक्तियों द्वारा दूसरों को नष्ट करके, उनका पतन करके या उनके उचित अधिकारों का हनन करके हम क्षय, पतित व दुखी होते हैं और आखिर में नष्ट हो जाते हैं।
सारा खेल भाव शक्तियों का है l इंसान की शक्तियों में जब तक उच्च परिवर्तन न हो, उसके आत्मा का विकास नहीं हो सकता l नीच भाव शक्तियों और उससे पैदा होने वाले नीच कार्यों के प्रति कष्ट बोध और हानि बोध न होने से उससे बाहर निकलने का नियम भी पूरा नहीं हो सकता l -
जीवन का सत्य लक्ष्य
मनुष्य का लक्ष्य क्या है और क्या होना चाहिए, इसके लिए सुखों के लिए आकर्षण और दुखों के लिए विकर्षण विषयक दो अलग अलग भावों से पूरा होने वाले नियमों का बोध पाना होगा l
मनुष्य के सुख अनुरागों में से प्रत्येक के विरुद्ध किसी घटना के उपस्थित होने पर मनुष्य के आत्मा में जो आघात लगता है, उस से उस में दुःख की उत्पत्ति होती है; और ऐसे कई दुखों की उत्पत्ति से उस में कई प्रकार की घृणाओं की उत्पत्ति होती है, इसको भी भली भांति समझ लेना होगा l
मनुष्य को अपने शरीर की जिन जिन इन्द्रियों के द्वारा जो जो सुख बोध होता है, उनमें से जिन जिन की प्राप्ति के लिए उसमें प्रबल लालसा वा वासना उत्पन्न हो जाती है, उसकी उस प्रबल लालसा वा उसके उस प्रबल आकर्षण के कारण जीवन का असली लक्ष्य समझ ही नहीं आता l
अहं” सम्बन्धी कई सुख अनुराग के कारण ख़ास तौर से बड़ाई सुख अनुराग की प्रबल लालसा की उत्पत्ति के कारण इंसान इतना घमंडी बन जाता हैं कि वह अपने ही विषय में किसी सत्य को मिथ्या और किसी मिथ्या को सत्य देखते हैं, किन्तु नेचर के विविध जगतों में जिन कई प्रकार के श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का विकास हुआ है, उनके सच्चे सौन्दर्य और उनकी सच्ची महिमा के देखने के भी वह योग्य नहीं रहता और घमंडी इंसान कई विषयों में मिथ्या दृष्टा और मिथ्या विश्वासी होकर भी अपने आपको सदा ठीक ठाक विश्वास करता है, और जो जन किसी विषय में भी उनका सा कोई मत वा उनका सा कोई विश्वास न रखता हो, वह उसी को सदा भ्रांत वा भ्रष्ट वा विपथ-गामी (गुमराह) विश्वास करता है l
ऐसे हालात रखकर क्या मनुष्य यह सोच सकता है कि आत्मा की नीच शक्तियों से सत्य मोक्ष और उच्च सात्विक शक्तियों का विकास ही हमारा आध्यात्मिक लक्ष्य है l
https://youtu.be/bBI7rBhLsmg -
मनुष्य की मूल प्रवृति और विशुद्ध परोपकार
इंसान की यह मूल प्रवृति है कि वह जीना चाहता है | नष्ट होना नहीं चाहता | सुखी होना व रहना चाहता है | दुखी होना व रहना नहीं चाहता |
मनुष्य में भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख और दुःख विषयक बोध और उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों के लिए आकर्षण वा अनुराग, और दुखों के लिए घृणा भाव; और इन्ही दोनों प्रकार के भावों द्वारा उसकी सब प्रकार की आत्मिक चिंताएं और क्रियाएं होती हैं l
चाहे सुख शरीर सम्बन्धी हो, चाहे अहं” सम्बन्धी कई सुख अनुराग हो या फिर संतान सम्बन्धी, धन सम्पति सम्बन्धी, संस्कार, संग वा अभ्यास सम्बन्धी सुख अनुराग हो; भले ही हिंसा सम्बन्धी सुख अनुराग हो या मिथ्या विश्वास सम्बन्धी कई सुख अनुराग हो; ऐसे नीच और दूसरों का शोषण करने वाले भाव रखकर मनुष्य विनाश के कगार पर है। ऐसे में मनुष्य अधिक जीने और सुखी रहने की आशा रखकर भी नीच दुःखों में फसेगा और बर्बाद हो जायेगा l -
True beauty or value
Other names for intrinsic value are terminal value, essential value, principle value, or ultimate importance, real wealth.
Intrinsic value is always something that an object has "in itself" or "for its own sake", and is
an intrinsic property.
Intrinsic value refers to the inherent worth or merit that an object or entity possesses in and of itself, independent of any external factors or circumstances. This value is not dependent on the object's utility, usefulness, or marketability, but rather is an inherent aspect of its nature or existence.
Therefore, it is generally true that intrinsic value is associated with intrinsic properties, as the value of an object or entity is often derived from its inherent characteristics or qualities.