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घमंड किस बात का
जब इंसान अपने वजूद के लिए इतना प्यार या इश्क़ बढ़ा लेता है और फिर इस प्रेम के कारण वह अपने शरीर, अपने शरीर के प्रत्येक अंग, अपने शरीर के बल, अपनी बुद्धि, अपनी समझ, अपनी भाषा, अपनी शिक्षा, अपने मत और अपने विश्वास आदि को न केवल सुन्दर और निर्दोष रूप में, किन्तु उन्हें किसी और की अपेक्षा झूठ मूठ भी बढ़ चढ़ कर देखता वा विश्वास करता है, और किसी गुण के विचार से किसी और को अपनी अपेक्षा झूठमूठ भी घटिया जानता वा विश्वास करता है, तब घमंड भाव के कारण वह भूल जाता हैं की इस अति महा विशाल नेचर में उसकी औकात क्या है l उसको यह भी याद नहीं रहता कि उसका वजूद दूसरों के ऊपर निर्भर करता है l हर एक पल वह दूसरों का मोहताज है l
घमंडी लोग केवल यही नहीं कि अपने ही विषय में किसी सत्य को मिथ्या और किसी मिथ्या को सत्य देखते हैं, किन्तु नेचर के विविध जगतों में जिन कई प्रकार के श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का विकास हुआ है, उनके सच्चे सौन्दर्य और उनकी सच्ची महिमा के देखने के भी वह योग्य नहीं रहते; अर्थात, वह अपने इस घमंड भाव के कारण इस प्रकार के सौन्दर्य के देखने की योग्यता को - यदि ऐसी कोई योग्यता उनमें पहले से वर्तमान हो - धीरे-धीरे खोकर अन्धे बन जाते हैं| और वह अन्धे होकर केवल यही नहीं, कि नेचर में मनुष्य जगत के विकास क्रम में जिन जिन आत्माओं में कई प्रकार के सुन्दर, सराहनीय, श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का प्रकाश हुआ है, उन्हें देखने के योग्य नहीं रहते, और इसीलिए उनकी सच्ची प्रशंसा वा स्तुति नहीं कर सकते, किन्तु उन उच्च गुणों के सौन्दर्य वा उनकी महिमा के देखने के योग्य बनने से किसी मनुष्य के आत्मा में जिस सच्चे सात्विक श्रद्धा भाव की जागृति होती है, उसे भी वह अपने आत्मा में विकसित नहीं कर सकते|
इसके भिन्न घमंडी जन नाना विषयों में मिथ्या दृष्टा और मिथ्या विश्वासी होकर भी अपने आपको सदा ठीक ठाक विश्वास करते हैं, और जो जन किसी विषय में भी उनका सा कोई मत वा उनका सा कोई विश्वास न रखता हो, वह उसी को सदा भ्रांत वा भ्रष्ट वा विपथ-गामी (गुमराह) विश्वास करते वा समझते वा प्रकट करते हैं l -
नफरतों का जहर
घमंड और नीच घृणा से बढ़कर हमारा और दूसरों का कोई शत्रु नहीं है l वैसे तो नफरत हर मनुष्य व पशु के लिए घातक है परन्तु देवात्मा और उनके देवप्रभावों के कारण किसी अधिकारी इंसान के अंदर उच्च बोध विकसित हो चुके हो, उनको नीच घृणा करना बहुत ही महाविनाशकारी हैं l
जब कोई इंसान किसी सुख का अनुरागी बन जाता है, उस सुख को वह लाभ करना चाहता है, और इसीलिए उसके उस सुख की प्राप्ति में जब कोई मनुष्य वा पशु वा कोई और अस्तित्व किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न करता है, तब उसमें उसके प्रति इस नीच-घृणा-भाव की उत्पत्ति होती है l
किसी से अपने किसी वांछित सुख की तृप्ति के न पाने पर; और अपने वा किसी अन्य जन वा जनसमूह के साथ किसी नीच अनुराग के बंधन से बंधे होने पर मनुष्य का नीच घृणाकारी बन जाना लाज़मी है l
जब कोई मनुष्य इस दशा में पहुच जाता है, कि वह अपनी बड़ाई की तुलना में किसी विषय में भी किसी और जन की बड़ाई को (चाहे वह पूर्णत: सच्ची भी हो) सुनना वा देखना वा मानना पसंद नहीं करता, और उससे दुःखी होता है; तब वह उसके प्रति स्वभावत: नीच घृणा अनुभव करता है l
इसके अलावा अपने एक वा दूसरे प्रकार के मिथ्या संस्कारों वा मिथ्या विश्वासों का अनुरागी बन जाने पर इंसान का नीच घृणाकारी बन जाना लाज़मी है l
नीच घृणाकारी इंसान हमेशा चाहता है कि मुझ से कोई जन भी श्रेष्ट वा बढ़िया न समझा, न माना और न प्रकट किया जाये; और मुझ से बढ़कर किसी विषय में किसी और जन की प्रशंसा न हो; और उसे कोई सन्मान आदि न मिले l -
होश की जिंदगी
होश की जिंदगी ही गुलज़ार है, सार्थक है l होश की जिंदगी आपकी हरेक चिंता व क्रिया के बोध की जिंदगी का नाम है l मनुष्य धन, सम्पत्ति, प्रशंसा, मान, बड़ाई, स्वार्थ सुख अनुराग आदि के सुखों का अनुरागी बनकर उन सुखों की प्राप्ति के लिए विविध प्रकार की मिथ्याओं और विविध प्रकार के अन्याय-मूलक कर्मों का आश्रय लेता है; और अपने आत्मा की हानि के भिन्न नाना समयों में अपने शरीर की भी बहुत हानि करता है, इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l
धर्म वा मज़हब के नाम से भी जितनी शिक्षाएं और क्रियाएं प्रचलित की गई हैं, उन सबका उद्देश्य भी एक वा दूसरे प्रकार के सुख की प्राप्ति और दुःख से निवृत्ति या मुक्ति ही बतलाया गया है, परन्तु यह सब शिक्षाएं और क्रियाएं नेचर के आत्मिक जगत के शुभ और सत्य विषयक अटल नियमों के विरुद्ध होने के कारण जैसे पूर्णत: मिथ्या हैं, वैसे ही वह उनके विश्वासी प्रत्येक मनुष्य के लिए नाना प्रकार से महा हानिकारक वा पतनकारी भी हैं इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l
अधिकारी मनुष्यों को इस सुख दुःख के आधार पर स्थापित सब प्रकार की मिथ्या शिक्षा और सब प्रकार के मिथ्या धर्म मतों, मिथ्या साधनों, मिथ्या मूलक व्यवहारों और अनुष्ठानों और सब प्रकार की अशुभ चिन्ताओं और अशुभ कर्मों और उनके विकारों से मोक्ष देने और उन्हें नेचर के आत्मिक जगत के अटल नियमों और उसकी अटल घटनाओं पर स्थापित सत्य धर्म विषयक मतों और विश्वासों का ज्ञान देने, उनमें आत्मिक जीवन उत्पादक और वर्द्धक नाना श्रेष्ट और सात्विक भावों के उत्पन्न करने और इस प्रकार से मनुष्य जगत का नेचर के ही नियमानुसार जहां तक सम्भव हो, सर्वांग कल्याण साधन करने के लिए उसके करोड़ों वर्षों के विकास- क्रम में शुभ और सत्य के बोधी और शुभ और सत्य के पूर्ण अनुरागी सत्यदेव देवात्मा का आविर्भाव हुआ है; इसका बोध पाना ही होश की जिंदगी है l -
Real friend
आखिर हमारा सच्चा हमदर्द और दोस्त कौन हैं ? क्या जो मुश्किल और विरोधी हालातों में हमारे साथ खड़े रहे ? या फिर सिर्फ वही इंसान हमारा दोस्त हो सकता है जो अपने आत्मा के भले की सच्ची आकांक्षा और अन्य अधिकारी आत्माओं की आत्मिक भलाई का भाव जिसके भीतर उत्पन्न हो गया हो ? जिस हद तक हमारे सात्विक भाव भी आत्म बोध और देव ज्योति के साथ तालमेल रखेंगे और उनके अनुकूल चलेंगे, केवल उसी हद तक व्यक्ति अपना और दूसरों का मित्र हो सकता है। -
विशुद्ध परोपकार का सूत्र
उच्च भाव शक्तियों द्वारा दूसरों की मदद करने से हम आत्मिक रूप से आगे बढ़ते हैं, विकसित होते हैं l वहीं दूसरी तरफ नीच भाव शक्तियों द्वारा दूसरों को नष्ट करके, उनका पतन करके या उनके उचित अधिकारों का हनन करके हम क्षय, पतित व दुखी होते हैं और आखिर में नष्ट हो जाते हैं।
सारा खेल भाव शक्तियों का है l इंसान की शक्तियों में जब तक उच्च परिवर्तन न हो, उसके आत्मा का विकास नहीं हो सकता l नीच भाव शक्तियों और उससे पैदा होने वाले नीच कार्यों के प्रति कष्ट बोध और हानि बोध न होने से उससे बाहर निकलने का नियम भी पूरा नहीं हो सकता l -
जीवन का सत्य लक्ष्य
मनुष्य का लक्ष्य क्या है और क्या होना चाहिए, इसके लिए सुखों के लिए आकर्षण और दुखों के लिए विकर्षण विषयक दो अलग अलग भावों से पूरा होने वाले नियमों का बोध पाना होगा l
मनुष्य के सुख अनुरागों में से प्रत्येक के विरुद्ध किसी घटना के उपस्थित होने पर मनुष्य के आत्मा में जो आघात लगता है, उस से उस में दुःख की उत्पत्ति होती है; और ऐसे कई दुखों की उत्पत्ति से उस में कई प्रकार की घृणाओं की उत्पत्ति होती है, इसको भी भली भांति समझ लेना होगा l
मनुष्य को अपने शरीर की जिन जिन इन्द्रियों के द्वारा जो जो सुख बोध होता है, उनमें से जिन जिन की प्राप्ति के लिए उसमें प्रबल लालसा वा वासना उत्पन्न हो जाती है, उसकी उस प्रबल लालसा वा उसके उस प्रबल आकर्षण के कारण जीवन का असली लक्ष्य समझ ही नहीं आता l
अहं” सम्बन्धी कई सुख अनुराग के कारण ख़ास तौर से बड़ाई सुख अनुराग की प्रबल लालसा की उत्पत्ति के कारण इंसान इतना घमंडी बन जाता हैं कि वह अपने ही विषय में किसी सत्य को मिथ्या और किसी मिथ्या को सत्य देखते हैं, किन्तु नेचर के विविध जगतों में जिन कई प्रकार के श्रेष्ठ वा उच्च गुणों का विकास हुआ है, उनके सच्चे सौन्दर्य और उनकी सच्ची महिमा के देखने के भी वह योग्य नहीं रहता और घमंडी इंसान कई विषयों में मिथ्या दृष्टा और मिथ्या विश्वासी होकर भी अपने आपको सदा ठीक ठाक विश्वास करता है, और जो जन किसी विषय में भी उनका सा कोई मत वा उनका सा कोई विश्वास न रखता हो, वह उसी को सदा भ्रांत वा भ्रष्ट वा विपथ-गामी (गुमराह) विश्वास करता है l
ऐसे हालात रखकर क्या मनुष्य यह सोच सकता है कि आत्मा की नीच शक्तियों से सत्य मोक्ष और उच्च सात्विक शक्तियों का विकास ही हमारा आध्यात्मिक लक्ष्य है l
https://youtu.be/bBI7rBhLsmg -
मनुष्य की मूल प्रवृति और विशुद्ध परोपकार
इंसान की यह मूल प्रवृति है कि वह जीना चाहता है | नष्ट होना नहीं चाहता | सुखी होना व रहना चाहता है | दुखी होना व रहना नहीं चाहता |
मनुष्य में भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख और दुःख विषयक बोध और उसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों के लिए आकर्षण वा अनुराग, और दुखों के लिए घृणा भाव; और इन्ही दोनों प्रकार के भावों द्वारा उसकी सब प्रकार की आत्मिक चिंताएं और क्रियाएं होती हैं l
चाहे सुख शरीर सम्बन्धी हो, चाहे अहं” सम्बन्धी कई सुख अनुराग हो या फिर संतान सम्बन्धी, धन सम्पति सम्बन्धी, संस्कार, संग वा अभ्यास सम्बन्धी सुख अनुराग हो; भले ही हिंसा सम्बन्धी सुख अनुराग हो या मिथ्या विश्वास सम्बन्धी कई सुख अनुराग हो; ऐसे नीच और दूसरों का शोषण करने वाले भाव रखकर मनुष्य विनाश के कगार पर है। ऐसे में मनुष्य अधिक जीने और सुखी रहने की आशा रखकर भी नीच दुःखों में फसेगा और बर्बाद हो जायेगा l -
True beauty or value
Other names for intrinsic value are terminal value, essential value, principle value, or ultimate importance, real wealth.
Intrinsic value is always something that an object has "in itself" or "for its own sake", and is
an intrinsic property.
Intrinsic value refers to the inherent worth or merit that an object or entity possesses in and of itself, independent of any external factors or circumstances. This value is not dependent on the object's utility, usefulness, or marketability, but rather is an inherent aspect of its nature or existence.
Therefore, it is generally true that intrinsic value is associated with intrinsic properties, as the value of an object or entity is often derived from its inherent characteristics or qualities. -
The higher level of pure altruism
Pure altruism refers to the behavior of individuals who act with the sole intention of benefiting others, without expecting any personal benefit in return. At the highest level of pure altruism, individuals are motivated by an unconditional love for others and a desire to help them, being a lover of Truth, Goodness & Beauty.
Such individuals often go beyond simply meeting the needs of others and strive to make a positive impact on society as a whole. They are driven by a deep sense of respect, gratitude, compassion and other elements of Truth, goodness and beauty for all living beings, and they seek to contribute to the greater good in any way they can.
At this level, pure altruism can involve self-sacrifice, where individuals willingly put their own lives at risk for the sake of others. They may also dedicate their lives to philanthropic endeavors or engage in humanitarian work, working tirelessly to help those who are less fortunate.
Overall, the highest level of pure altruism represents a profound expression of the human capacity for complete love of truth and goodness, and it can have a transformative impact on individuals, communities, society and family as a whole including animals and plants. -
The theory of relativity in altruism
The law of pure altruism is a relative rather than absolute.
ज्यादा या गहरे गुरुत्वाकर्षण बल की उपस्थिति में समय धीमा बहने लगता है l (In the presence of strong gravitational fields, such as those caused by massive objects like black holes, time dilation occurs. This means that time seems to run slower in the presence of the strong gravitational force. Therefore, time can appear to move slower at high speeds, such as those approaching the speed of light.)
यह नियम परोपकार (Altruism) में भी लागू होता है l आत्म ज्ञान और बोध का स्तर, उसकी गहराई व तीव्रता क्या है और दूसरा, उच्चतम मूल्यों के प्रति अनुराग या आकर्षण कितना है, इससे हमारे जीवन से निकल रहे altruistic services का पता लग सकेगा l Altruistic nature भी absolute न होकर relativity के नियम को follow करता हैं l हम कितना समय विशुद्ध परोपकारी रहे उससे ज्यादा यह महत्वपूर्ण है कि हम देवप्रभावों की strong fields में कितनी देर रहें l
https://youtu.be/YnpXjS_u0zU -
विशुद्ध परोपकार के लिए वफादारी
Loyalty to pure altruism would mean consistently prioritizing the well-being and further evolution, harmony and true happiness of others over one's own self-interest, and consistently making decisions that benefit others even if it may come at a personal cost.
Ultimately, while the loyalty to pure altruism may be challenging, striving towards this ideal can lead to a more fulfilling and meaningful life, as well as a more compassionate and just society.
it is worth striving for, both for the benefit of others and for our own personal growth and fulfilment.
विशुद्ध परोपकार बिना सच्चे आत्म ज्ञान और बोध के संभव नहीं हैं l आत्मा का वास्तविक ज्ञान और बोध देव जीवन के लिए आकर्षण और अनुराग के बिना न हो सकेगा l दूसरे शब्दों में कहें तो बिना देवप्रभाव के विशुद्ध परोपकार की कल्पना भी न हो सकेगी l रास्ता बड़ा साफ़ हैं कि देवप्रभावों के बिना चारों ओर केवल अंधकार ही अंधकार है। -
Thy uniqueness!
आज के दिन 3 अप्रैल को देवात्मा अपने पावन स्थूल शरीर को छोड़ चुके थे ? अपने पीछे कई ऐसे सवाल खड़े कर के गए है, जिनका जवाब आज तक कोई नहीं दे पाया।उनके द्वारा हम पर किए गए महान एहसानों में से एक यह भी है कि उन्होंने अपने जीवन और शिक्षाओं को लिखा है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह जान सकें:-जीवन के उच्चतम मूल्य क्या है; सत्य और शुभ के पूर्ण अनुरागों का शिखर क्या है; मनुष्य आत्मा का विकास कब तक और किन नियमों से हो सकता है; जिंदगी का असल लक्ष्य क्या है; आत्मा और देवात्मा का सम्पूर्ण विज्ञान क्या है और किन नियमों के ऊपर आधारित हैं वगैरह।
उच्चतम मूल्यों की विशेषताएँ क्या थीं, यह देवप्रभावों के बिना नहीं जाना जा सकता। जन्म विषयक विशेषता, विकास कार्य की प्रणाली की विशेषता, लक्ष्य विषयक विशेषता, अटल विश्वास और आत्मनिर्भर की विशेषता, महा त्याग विषयक विशेषता, शिक्षा विषयक विशेषता, धर्म संस्थापन विषयक विशेषता, धर्म संग्राम विषयक विशेषता etc., ऐसे कितने ही पहलू है देव जीवन की विशेषता के कि जिसका पूर्ण रूप से बोध पाना मनुष्य के लिए बहुत कठिन है।
देवात्मा को इस बात का भी बहुत ज्यादा गम हो सकता है कि उच्चतम मूल्यों से देप्रभाव भी निकले, पर उनका कोई असल दीवाना या सच्चा प्रशंसक पैदा नहीं हो सका।